| दिनांक और दिन | मास-तिथि | नक्षत्र |
| 15 जनवरी, बुध | माघ कृ. पंचमी | उ.फाल्गुन नक्षत्र |
| 16 जनवरी, गुरु | माघ कृ. षष्ठी | हस्त,चित्रा नक्षत्र |
| 17 जनवरी, शुक्र | माघ कृ. सप्तमी | चित्रा,स्वाति नक्षत्र |
| 18 जनवरी, शनि | माघ कृ. नवमी | स्वाति नक्षत्र |
| 19 जनवरी, रवि | माघ कृ. दशमी | अनुराधा नक्षत्र |
| 20 जनवरी, सोम | माघ कृ. एकादशी | अनुराधा नक्षत्र |
| 26 जनवरी, रवि | माघ शु. द्वितीया | धनिष्ठा नक्षत्र |
| 29 जनवरी, बुध | माघ शु. चतुर्थी | उ.भाद्रपद नक्षत्र |
| 30 जनवरी, गुरु | माघ शु. पंचमी | उ.भाद्रपद, रेवती नक्षत्र |
| 31 जनवरी, शुक्र | माघ शु. षष्ठी | रेवती, अश्विनी नक्षत्र |
| 1 फरवरी, शनि | माघ शु. सप्तमी | अश्विनी नक्षत्र |
| 3 फरवरी, सोम | माघ शु. नवमी | रोहिणी नक्षत्र |
| 4 फरवरी, मंगल | माघ शु. दशमी | रोहिणी नक्षत्र |
| 9 फरवरी, रवि | माघ पूर्णिमा | मघा नक्षत्र |
| 10 फरवरी, सोम | फाल्गुन कृ. प्रतिपदा | मघा नक्षत्र |
| 11 फरवरी, मंगल | फाल्गुन कृ. तृतीया | उ.फाल्गुन नक्षत्र |
| 14 फरवरी, शुक्र | फाल्गुन कृ. षष्ठी | स्वाति नक्षत्र |
| 15 फरवरी, शनि | फाल्गुन कृ. सप्तमी | अनुराधा नक्षत्र |
| 16 फरवरी, रवि | फाल्गुन कृ. अष्टमी | अनुराधा नक्षत्र |
| 25 फरवरी, मंगल | फाल्गुन शु. द्वितीया | उ.भाद्रपद नक्षत्र |
| 26 फरवरी, बुध | फाल्गुन शु. तृतीया | उ.भाद्रपद, रेवती नक्षत्र |
| 27 फरवरी, गुरु | फाल्गुन शु. चतुर्थी | रेवती नक्षत्र |
| 28 फरवरी, शुक्र | फाल्गुन शु. पंचमी | अश्विनी नक्षत्र |
| 10 मार्च, मंगल | चैत्र कृ. प्रतिपदा | हस्त नक्षत्र |
| 11 मार्च, बुध | चैत्र कृ. द्वितीया | हस्त नक्षत्र |
| 16 अप्रैल, गुरु | वैशाख कृ. नवमी | धनिष्ठा नक्षत्र |
| 17 अप्रैल, शुक्र | वैशाख कृ. दशमी | उ.भाद्रपद नक्षत्र |
| 25 अप्रैल, शनि | वैशाख शु. द्वितीया | रोहिणी नक्षत्र |
| 26 अप्रैल, रवि | वैशाख शु. तृतीया | रोहिणी नक्षत्र |
| 1 मई, शुक्र | वैशाख शु. अष्टमी | मघा नक्षत्र |
| 2 मई, शनि | वैशाख शु. नवमी | मघा नक्षत्र |
| 4 मई, सोम | वैशाख शु. एकादशी | उ.फाल्गुनी,हस्त नक्षत्र |
| 5 मई, मंगल | वैशाख शु. त्रयोदशी | हस्त नक्षत्र |
| 6 मई, बुध | वैशाख शु. चतुर्दशी | चित्रा नक्षत्र |
| 15 मई, शुक्र | ज्येष्ठ कृ. अष्टमी | धनिष्ठा नक्षत्र |
| 17 मई, रवि | ज्येष्ठ कृ. दशमी | उ.भाद्रपद नक्षत्र |
| 18 मई, सोम | ज्येष्ठ कृ. एकादशी | उ.भाद्रपद, रेवती नक्षत्र |
| 19 मई, मंगल | ज्येष्ठ कृ. द्वादशी | रेवती नक्षत्र |
| 23 मई, शनि | ज्येष्ठ शु. प्रतिपदा | रोहिणी नक्षत्र |
| 11 जून, गुरु | आषाढ़ कृ. षष्ठी | धनिष्ठा नक्षत्र |
| 15 जून, सोम | आषाढ़ कृ. दशमी | रेवती नक्षत्र |
| 17 जून, बुध | आषाढ़ कृ. एकादशी | अश्विनी नक्षत्र |
| 27 जून, शनि | आषाढ़ शु. सप्तमी | उ.फाल्गुनी नक्षत्र |
| 29 जून, सोम | आषाढ़ शु. नवमी | चित्रा नक्षत्र |
| 30 जून, मंगल | आषाढ़ शु. दशमी | चित्रा नक्षत्र |
| 27 नवंबर, शुक्र | कार्तिक शु. द्वादशी | अश्विनी नक्षत्र |
| 29 नवंबर, रवि | कार्तिक शु. चतुर्दशी | रोहिणी नक्षत्र |
| 30 नवंबर, सोम | कार्तिक पूर्णिमा | रोहिणी नक्षत्र |
| 1 दिसंबर, मंगल | मार्गशीर्ष कृ. प्रतिपदा | रोहिणी नक्षत्र |
| 7 दिसंबर, सोम | मार्गशीर्ष कृ. सप्तमी | मघा नक्षत्र |
| 9 दिसंबर, बुध | मार्गशीर्ष कृ. नवमी | हस्त नक्षत्र |
| 10 दिसंबर, गुरु | मार्गशीर्ष कृ. दशमी | चित्रा नक्षत्र |
| 11 दिसंबर, शुक्र | मार्गशीर्ष कृ. एकादशी | चित्रा नक्षत्र |
उपरोक्त दी गयी जानकारी विवाह मुहूर्त 2020 की शुभ तिथियों की है। हिन्दू धर्म में प्रत्येक शुभ कार्य को एक शुभ मुहूर्त में करने का विधान है। चूँकि विवाह एक मांगलिक कार्य है इसलिए इसे भी एक शुभ मुहूर्त में किया जाता है। भारतीय हिन्दू संस्कृति में शादी को एक पवित्र बंधन माना जाता है। यह एक जन्म का नहीं बल्कि सात जन्मों का रिश्ता होता है। इसमें लिए जानें वाले सात फेरे, सात वचन होते हैं, जिन्हें जीवनसाथी सात जन्मों तक निभाने का वादा करता है और ये वादा एक निश्चित शुभ समय में लिया जाता है और इसी शुभ समय को विवाह मुहूर्त के नाम से जानते हैं। यदि हम यहाँ केवल मुहूर्त की सटीक व्याख्या करें तो, हम यह कह सकते हैं कि किसी भी शुभ कार्य के लिए वैदिक पंचांग के द्वारा निर्धारित की गई समयावधि को मुहूर्त कहते हैं।
विवाह एक सात जन्मों का बंधन है। इस अटूट बंधन में दो आत्माओं का मिलन है। सामाजिक ताने-बाने में उसे पति-पत्नी के रूप में जानते हैं। वैदिक संस्कृति में किसी भी मनुष्य के लिए चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास) बताए हैं। इन चारों में गृहस्थ आश्रम की नींव विवाह से ही पड़ती है। शादी के बाद किसी व्यक्ति के जीवन की नई पारी शुरु होती है। सामाजिक जीवन में नई जिम्मेदारियाँ आती हैं। जिस प्रकार इंद्र धनुष में सात रंग होते हैं, आकाश में सप्त ऋषि होते हैं, उसी तरह से विवाह संस्कार में सात फेरे होते हैं। शादी में सात फेरों की रस्म सबसे प्रमुख रस्म होती है। बिना फेरे के विवाह संपन्न नहीं होता है। शादी में होने वाले फेरों का एक विशेष अर्थ होता है। विवाह मुहूर्त 2020 के इस लेख के माध्यम से हम आपको विवाह मुहूर्त की उपयोगिता व आवश्यकता के बारे में बता रहे हैं।
विवाह मुहूर्त 2020 के माध्यम से आइये जानें की विवाह मुहूर्त कैसे निकला जाता है। विवाह वर और वधु के बीच होता है। लेकिन विवाह से पूर्व इन दोनों की कुंडलियों को मिलाया जाता है। इस व्यवस्था को कुंडली मिलान या गुण मिलना के नाम से जानते हैं। इसमें वर और कन्या की कुंडलियों को देखकर उनके 36 गुणों को मिलाया जाता है। जब दोनों के बीच 24 से 32 गुण मिल जाते हैं तो ही उनकी शादी के सफल होने की संभावना बनती है। कुंडली में जो सातवाँ घर होता है वह विवाह के विषय में बताता है।
जब कुंडली में गुण मिलान की क्रिया संपन्न हो जाती है तब वर-वधु की जन्म राशि के आधार पर विवाह संस्कार के लिए निश्चित तिथि, वार, नक्षत्र तथा समय को निकाला जाता है जो विवाह मुहूर्त कहलाता है। विवाह मुहूर्त के लिए ग्रहों की दशा व नक्षत्रों का ऐसे विश्लेषण किया जाता है -
शादी-ब्याह के संबंध लग्न का अर्थ होता है फेर का समय और उससे पहले होने वाले परंपरा। लग्न का निर्धारण शादी की तारीख़ तय होने के बाद ही होता है। यदि विवाह लग्न के निर्धारण में ग़लती होती है तो विवाह के लिए यह एक गंभीर दोष माना जाता है। विवाह संस्कार में तिथि को शरीर, चंद्रमा को मन, योग व नक्षत्रों को शरीर का अंग और लग्न को आत्मा माना गया है। यानि लग्न के बिना विवाह अधूरा होता है।
विवाह मुहूर्त 2020 के इस लेख में मुहूर्त की तिथि को लग्न का ध्यान रखते हुए बनाया गया है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, भद्रा काल में विवाह जैसे मांगलिक कार्य नहीं होते हैं। किंतु आवश्यकता पड़ने पर इसका विधान भी है। इसके लिए भूलोक की भद्रा तथा भद्रा मुख को त्यागकर भद्रा पुच्छ में विवाह मुहूर्त निकाला जा सकता है। वहीं गोधुलि काल में विवाह मुहूर्त संपन्न किया जा सकता है। गोधुलि काल आशय है कि जब सूर्यास्त होने वाला हो और गाय का झुंंड अपने-अपने घरों को लौटते हुए अपने ख़ुरों से धूल उड़ा रही हों इस काल को गोधुलि काल कहा जाता है। हालाँकि ऐसा बहुत ही असमान्य परिस्थितियों में होता है।
हिन्दू पंचांग में चार माह का एक चतुर्मास होता है। यह चतुर्मास देवशयनि एकादशी (आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी) से प्रारंभ होकर देवउठनी एकादशी (कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी) तक होता है। शास्त्रों के अनुसार, इन चार महिनों में मांगलिक कार्य को छोड़कर जप-तप एवं ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। पौराणिक कथा के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि चतुर्मास में भगवान विष्णु चार माह के लिए क्षीर सागर में निद्रा आसन के चले जाते हैं। इन चार महीने की अवधि समाप्त होने के बाद जब भगवना विष्णु निद्रासन से जागते हैं तभी विवाह जैसे मांगलिक कार्य शुरु होते हैं।
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